देशभक्ति / nationalism के गीत / poems / comments
वन्दे मातरम् सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यशामलां मातरम् । शुभ्रज्योत्स्ना पुलकित यामिनीं फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीं सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं सुखदां वरदां मातरम् ।।१।। वन्दे मातरम् । कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले, अबला केन मा एत बले । बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं रिपुदलवारिणीं मातरम् ।।२।। वन्दे मातरम् । तुमि विद्या, तुमि धर्म तुमि हृदि, तुमि मर्म त्वं हि प्राणा: शरीरे बाहुते तुमि मा शक्ति, हृदये तुमि मा भक्ति, तोमारई प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ।।३।। वन्दे मातरम् । त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी कमला कमलदल विहारिणी वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम् नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम् ।।४।। वन्दे मातरम् । श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां धरणीं भरणीं मातरम् ।।५।। वन्दे मातरम् ।। ~बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
तेरे अच्छे, पानी अच्छे फलों से सुगंधित, शुष्क, उत्तरी समीर हवा हरे भरे खेतों वाली मेरी मां| चांदनी से प्रकाशित बाली, खिले हुए फूलों और घने वृक्षों वाली, सु मधुर भाषा वाली, सुख देने वाली मेरी मां| शुभ्र = चमकदार, ज्योत्सना = चन्द्रमा की रोशनी, पुलकित =अत्यधिक खुश, रोमांचित, यामिनी = रात्रि, फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीं = वो जिसकी भूमि खिले हुए फूलों से सुसज्जित पेड़ों से ढकी हुयी है. फ़ुल्ल = खिले हुए, कुसुमित = फूल, द्वुम = वृक्ष, दल = समूह, शोभिनीं = शोभा बढ़ाते हैं. सुहासिनीं = सदैव हंसने वाली, सुमधुर भाषिनी = मधुर भाषा बोलने, सुखदां = सुख देने वाली, वरदां = वरदान देने वाली. Richly-watered, richly-fruited, cool with the winds of the south, dark with the crops of the harvests, The Mother! Her nights rejoicing in the glory of the moonlight, her lands clothed beautifully with her trees in flowering bloom, sweet of laughter, sweet of speech, The Mother, giver of boons, giver of bliss.
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले = करोड़ों कंठ मधुर वाणी में तुम्हारी प्रशंसा कर रहे हैं. कोटि = करोड़, कंठ = गला, कल-कल + बहती हुई जलधारा की मधुर ध्वनि. निनाद = गुनगुनाहट, कराले = आवाज़. मैं तेरी पद-वन्दना करता हूँ मेरी माँ। Mother, to thee I bow. तीस करोड़ कण्ठों की जोशीली आवाज़ें, साठ करोड़ भुजाओं में तलवारों को धारण किये हुए, माँ कौन कहता है कि तुम अबला हो, तू ही हमारी भुजाओं की शक्ति है. कोटि-कोटि-भुजैधृत-खरकरवाले - करोड़ों हाथों में तेरी रक्षा के लिए धारदार तलवारें निकली हुई हैं. भुजै धृत = भुजाओं में निकली हुई, खर = धारदार, करवाल = तलवार. अबला केन मा एत बले - माँ कौन कहता है कि तुम अबला हो. बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं - तुम बल धारण की हुई हो. तुम तारने वाली हो, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ. बहुबलधारिणीं - बहुत बल धारण किये हुए । बहुत शक्तिशाली, नमामि = में प्रणाम करता हूँ, तारिणीं + तारण करने वाली / बचाने वाली. रिपुदलवारिणीं मातरम् - माँ तुम शत्रुओं को समाप्त करने वाली हो. रिपुदल = शत्रुओं का दल, वारिणी = रोकने. Who hath said thou art weak in thy lands When the sword flesh out in the seventy million hands And seventy million voices roar Thy dreadful name from shore to shore? With many strengths who art mighty and stored, To thee I call Mother and Lord! Though who savest, arise and save! To her I cry who ever her foeman drove Back from plain and Sea And shook herself free.मां मैं तेरी वंदना करता हूं| Mother, I bow to thee! तृमि विद्या, तुमि धर्म =तुम हीं विद्या हो , तुम हीं धर्म हो. तुमि हृदि, तुमि मर्म = तुम हीं हृदय, तुम हीं तत्व हो. त्वं हि प्राणाः शरीरे = तुम हीं शरीर में स्थित प्राण हो. बाहुते तुमि मा शक्ति = हमारी बाँहों में जो शक्ति है वो तुम ही हो. हृदये तुमि मा भक्ति = हृदय में जो भक्ति है वो तुम ही हो. तोमारई प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् = तुम्हारी हीं प्रतिमा हर मन्दिर में गड़ी हुई है. [तू ही मेरा ज्ञान, तू ही मेरा धर्म है, तू ही मेरा अन्तर्मन, तू ही मेरा लक्ष्य, तू ही मेरे शरीर का प्राण, तू ही भुजाओं की शक्ति है, मन के भीतर तेरा ही सत्य है, तेरी ही मन मोहिनी मूर्ति एक-एक मन्दिर में.] Thou art wisdom, thou art law, Thou art heart, our soul, our breath Though art love divine, the awe In our hearts that conquers death. Thine the strength that serves the arm, Thine the beauty, thine the charm. Every image made divine In our temples is but thine.
Mother, I bow to thee! मां मैं तेरी वंदना करता हूं। तू ही दुर्गा दश सशस्त्र भुजाओं वाली, तू ही कमला है, कमल के फूलों की बहार, तू ही ज्ञान गंगा है, परिपूर्ण करने वाली, मैं तेरा दास हूँ, दासों का भी दास, दासों के दास का भी दास, अच्छे पानी अच्छे फलों वाली मेरी माँ, मैं तेरी वन्दना करता हूँ। Thou art Durga, Lady and Queen, With her hands that strike and her swords of sheen, Thou art Lakshmi lotus-throned, And the Muse a hundred-toned, Pure and perfect without peer, Mother lend thine ear, Rich with thy hurrying streams, Bright with thy orchard gleams, Dark of hue O candid-fair. त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी= तुम ही दस अस्त्र धारण की हुई दुर्गा हो. कमला = लक्ष्मी जी, कमलदलविहारिणी = तुम ही कमल पर आसीन लक्ष्मी हो. वाणी विद्यादायिनी, नामामि त्वाम् = तुम वाणी एवं विद्या देने वाली ( सरस्वती ) हो , तुम्हें प्रणाम.
कमलां = धन देने वाली देवी / लक्ष्मी, अमलां = अति पवित्र, अतुलां = जिसकी कोई तुलना न हो, सुजलां = जल देने वाली , सुफलां =फल देने वाली. लहलहाते खेतों वाली, पवित्र, मोहिनी, सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर मैं तेरी वन्दना करता हूँ। In thy soul, with jewelled hair And thy glorious smile divine, Loveliest of all earthly lands, Showering wealth from well-stored hands! Mother, mother mine! Mother sweet.Mother, I bow to thee!
आओ बच्चों, तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् आओ बच्चों, तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् उत्तर में रखवाली करता पर्वतराज विराट है दक्षिण में चरणों को धोता सागर का सम्राट है जमुना जी के तट को देखो, गंगा का ये घाट है बाट-बाट में, हाट-हाट में यहाँ निराला ठाठ है देखो ये तस्वीरें अपने गौरव की, अभिमान की इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् ये है अपना राजपुताना, नाज़ इसे तलवारों पे इसने सारा जीवन काटा बरछी, तीर कटारों पे ये प्रताप का वतन पला है आज़ादी के नारों पे कूद पड़ी थी यहाँ हजारों पद्म्निआं अंगारों पे बोल रही है कण-कण से क़ुर्बानी राजस्थान की इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् देखो मुल्क मराठों का ये, यहाँ शिवाजी डोला था मुग़लों की ताक़त को जिसने तलवारों पे तोला था हर पर्वत पे आग जली थी, हर पत्थर एक शोला था बोली हर-हर महादेव का बच्चा-बच्चा बोला था
शेर शिवाजी ने रखी थी लाज हमारी शान की इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् जलियाँवाला बाग़ ये देखो, यहीं चली थी गोलियाँ ये मत पूछो किसने खेली यहाँ खून की होलियाँ एक तरफ़ बंदूकें दन-दन, एक तरफ़ थी टोलियाँ मरने वाले बोल रहे थे इनक़लाब की बोलियाँ यहाँ लगा दी बहनों ने भी बाज़ी अपनी जान की इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् ये देखो बंगाल, यहाँ का हर चप्पा हरियाला है यहाँ का बच्चा-बच्चा अपने देश पे मरने वाला है ढाला है इसको बिजली ने, भूचालों ने पाला है मुट्ठी में तूफ़ान बँधा है और प्राण में ज्वाला है जन्मभूमि है यही हमारे वीर सुभाष महान की इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम् वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्... ~ कवि प्रदीप
युद्ध नहीं जिनके जीवन में, वे भी बड़े अभागे होंगे। या तो प्रण को तोड़ा होगा, या फिर रण से भागे होंगे।। अनाम कवि (माध्यम डॉ ओमेंद्र रतनु)
ॐ
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय उपनिषद पुराण महाभारत वेदामृत का पान किया मैंने अपनी पग काल कंठ पर रख गीता का ज्ञान दिया मैंने संसार नग्न जब फिरता था आदिम युग में होकर अविज्ञ उस काल खंड का उच्च भाल आर्यभट्ट सा खगोलज्ञ पृथ्वी के अन्य भाग का मानव जब कहलाता था वनचर मैं कालिदास कहलाता था तब मेघदूत की रचना कर जब त्रस्त व्याधियों से होकर अनगनित जीवन मिट जाते थे अश्वनीकुमार धन्वन्तरि शुश्रुत मेरे सूत कहलाते थे
कल्याण भाव हर मानव का मेरे अंतर्द्वंद का किसलय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय मेरी भृकुटि अगर तन जाए मैं तीसरा नेत्र शंकर का ब्रह्माण्ड कांपती है जिससे वह तांडव हूँ प्रलयंकर का मैं रक्त बीज शिर उच्छेदक काली की मुंड-माल हूँ मैं मैं इंद्रा देव का तीक्ष्ण वज्र चंडी की खड्ग कराल हूँ मैं मैं चक्र सुदर्शन कान्हा का मैं काल क्रोध कल्याणी का महिषासुर के समरांगण में मैं अट्टहास रुद्राणी का मैं भैरव का भीषण स्वभाव मैं फिर वीरभद्र की क्रोध ज्वाल असुरों की जीवित निगल गया मैं वह काली का अंतराल देवों की स्वासों से गुंजा करता है नित दिन वह हूँ जय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय मैं हूँ शिव बलि सा दानशील मैं हरिश्चंद्र सा द्रिढ प्रतिज्ञ मैं भीष्म कर्ण सा शपथधार मैं धर्मराज सा धर्म विविज्ञ हूँ चतुश्निति में पारंगत मैं यदुनंदन यदुकुल भूषण मैंने ही राघव बन मारे मारीच तड़का खर दूषण मैं अजय धनुर्धर अर्जुन हूँ मैं भीम प्रचंड गदाधारी अभिमन्यु व्युहभेदक हूँ मैं भगदत्त सामान त्रिशूलधारी मैं नागपंचमी के दिन अगर नागों को दूध पिलाता हूँ तो आवश्यकता पड़ने पर जन्मेजय भी बन जाता हूँ अब भी अन्याय हुआ यदि तो कर दूंगा धरती शोणितमय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय शत-प्रबल-खड्गरव वेगयुक्त आघातों को मैंने झेला भीषण शूलों की छाया में मेरा जीवन प्रति पल खेला संसार विजेता की आशा मेरे ही आगे धुल हुई यवनों की वह अजेय क्षमता मेरे ही पग पर धुल हुई मेरी अजेय यश की गाथा सम्वत का क्रम सूना रहा यवनों पर मेरी विजय कथा बलिदानों का क्रम बता रहा पर नहीं उठाई खड्ग मैंने कभी दुर्बल की पीड़ित तन पर अपने भाले की धार ना परखी मैं आहत जीवन पर इतिहास साक्षी दुर्ग नयी हैं भरे हृदय मेरा आलय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय युग युग से जिसे संजोये हूँ बप्पा के उर की ज्वाल हूँ मैं क़ासिम के सर पे बरसी वह दाहर की खड्ग विशाल हूँ मैं अस्सी घाओं को तन पर ले जो लड़ता है वो शौर्य हूँ मैं सेल्यूकस को पददलित किया जिसने यश से वो मौर्य हूँ मैं कौटिल्य ह्रदय की अभिलाषा मैं चन्द्रगुप्त का चन्द्रहास चमकौर दुर्ग पे चमका था उस वीर युगल का मैं विलास रणमत्त शिवा ने किया कभी निश-दिन मेरा रक्ताभिषेक गोविन्द हकीकत राय सहित जिस पथ पर पग निकले अनेक वह ज्वाल आज भी धधक रही है तो इसमें कैसा विस्मय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय
मैं शुद्ध बुद्ध चैतन्य आत्मा अंतर का वैज्ञानिक था जो व्योम-ज्वाल बन कर उड़ता जाए ऐसा वैमानिक था मैं शांति अहिंसा के कारण महलों को तज कर वन निकला मेरे पीछे पीछे हिंसा से व्याकुल जनजीवन निकला गांधार चीन ईरान श्याम बर्मा श्रीलंका आलिंगित हर एक ओर शांति की ध्वजा हर एक धरती पर मेरे पग चिन्हित धीरे धीरे सारा भूमण्डल ही अनुगामी हो आया हर आहत पीड़ा से व्याकुल मानव ने मुझको अपनाया तूने मेरी प्रतिमाओं से जड़वाए अपने शौचालय बदला लेने को आतुर हूँ तो है इसमें कैसा विस्मय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय ~तुफैल चतुर्वेदी
काशी की कला जाती, मथुरा में मस्जिद ही होती अगर छत्रपति शिवाजी महाराज न होते, तो सुन्नत होती हम सबकी । शिवा-बावनी – १ / Shiva Baavani – 1 साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि, सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं। 'भूषण' भनत नाद विहद नगारन के,नदी नद मद गैबरन के रलत है ।। भावार्थ: घोड़े पर सवार छत्रपति शिवा जी वीरता और कौशल से परिपूर्ण अपनी चतुरंगिणी सेना की अगुआई करते हुए जंग जीतने के लिए निकल पड़े हैं। बजते हुए नगाड़ों की आवाज़ और मतवाले हाथियों के मद से सभी नदी-नाले भर गए हैं। ऐल फैल खैल-भैल खलक में गैल गैल, गजन की ठैल पैल सैल उसलत हैं । तारा सो तरनि धूरि धारा में लगत जिमि, थारा पर पारा पारावार यों हलत हैं ।। भावार्थ: भीड़ के कोलाहल, चीख-पुकार के फैलने से रास्तों पर खलबली मच गयी है । मदमस्त हाथियों की चाल ऐसी है कि धक्का लगने से आस-पास के पहाड़ तक उखड़कर गिर जा रहे हैं। विशाल सेना के चलने से उड़ने वाली धूल के कारण सूरज भी एक टिमटिमाते हुए तारे सा दिखने लगा है। विशाल चतुरंगिणी सेना के चलने से संसार ऐसे डोल रहा है जैसे थाल में रखा हुआ पारा हिलता है। शब्दार्थ: साजि = सजा कर । चतुरंग = चतुरंगिणी सेना अर्थात हाथी, घोड़े, रथ और पैदल । वीर रंग में = बड़ी बहादुरी के साथ । तुरंग = घोड़ा । जंग = लड़ाई । सरजा = सरेजाह (फ़ारसी शब्द) शिवाजी, यह मालोजी की उपाधि थी जो उन्हें अहमदनगर के दरबार में दी गई थी । सरेजाह का अर्थ है सर्वशिरोमणि। भनत या भणत = कहते हैं । नाद = आवाज़ । विहद = बेहद । गैबर = मत्त हाथी । रलत हैं = मिल जाते हैं । ऐल = भीड़, कोलाहल, चीख-पुकार । फैल = फैलने से । खैल-भैल = खलबली । गैल = रास्ता । तरनि = सूर्य । पारावार = समुद्र । भावार्थ: अपनी चतुरंगिनी सेना को वीर रस मे सजाकर अर्थात उत्साह से परिपूर्ण कर शिवाजी महाराज युद्ध जीतने के लिये निकाल पड़े हैं। भूषण कवि कहते हैं की सेना के आगे-आगे अवशाल नगाड़ों को बजाया जा रहा है और युवा मतवाले हाथियों के कान से बनने वाले मद का परिणाम इतना अधिक है कि रास्ते के तमाम नदी-नाले मद से भर गाये हैं। हाथियों का काया इतनी विशाल है और उनकी संख्या भी इतनी अधिक है कि रास्ते संकरे से लगने लगे हैं। मतवाले हाथियों के चलने से और उनका धक्का लगने से, रास्ते के दोनों ओर जो पहाड़ खड़े हैं, वे उखड कर गिर रहे हैं। शिवाजी महाराज की विशाल सेना के चलने से इतनी धूल उड़ रही है कि आकाश पर पर्त ही छा गयी है। इस कारण से आसमान पर दमकता हुआ सूरज भी एक टिमटिमाते हुए तारे सा दिखने लगा है। सेना के बोझ के कारण पूरा संसार ऐसे डोल रहा है जैसे किसी विशाल थाली में रखा हुआ पारद पदार्थ इधर से उधर डोलता रहता है। शिवा-बावनी – २ / Shiva Baavani – 2 बाने फहराने घहराने घण्टा गजन के, नाहीं ठहराने राव राने देस देस के । नग भहराने ग्रामनगर पराने सुनि, बाजत निसाने सिवराज जू नरेस के ॥ भावार्थ: शिवाजी की सेना के झंडों के फहराने से और हाथियों के गले में बंधे हुए घण्टों की आवाजों से देश-देश के राजा-महाराजा पल भर भी न ठहर सकें। नगाड़ों की आवाज़ से पहाड़ तक हिल गए, गांवों और नगरों के लोग इधर-उधर भागने लगे। हाथिन के हौदा उकसाने कुंभ कुंजर के, भौन को भजाने अलि छूटे लट केस के । दल के दरारे हुते कमठ करारे फूटे, केरा के से पात बिगराने फन सेस के ॥ भावार्थ: शत्रु-सेना के हाथियों पर बंधे हुए हौदे घड़ों की तरह टूट गये। शत्रु-देशों की स्त्रियां, जब अपने-अपने घरों की ओर भागीं तो उनके केश हवा में इस तरह उड़ रहे थे, जैसे कि काले रंग के भौंरों के झुंड के झुंड उड़ रहे हों। शिवाजी की सेना के चलने की धमक से कछुए की मजबूत पीठ टूटने लगी है और शेषनाग का फन मानो केले के पत्तों की तरह फैल गया। शब्दार्थ: बाने = झण्डे जो भालेदारों के भालों पर लगे रहते हैं। फहराने = उड़े। घहराने = भीषण आवाज़ होना। भहराने = हड़बड़ी में गिर जाना। पराने = भाग गये। निसान = भूषण जी के अर्थ में नगाड़े; घोड़ों पर नगाड़े वाले जो झण्डा रखते हैं उसे निशान कहते हैं। उकसाने = उकस गये, ढीले पड़ गये। कुम्भ = हाथी का सिर, घड़ा। कुंजर = हाथी। भौन = भवन या घर। दल = सेना। दरार = धमाक। कमठ = कछुआ। करारे = मज़बूत। भावार्थ: भूषण कवि कहते हैं कि शिवाजी की सेना में भालों पर लगे हुए ध्वज फहराने लगे और हाथियों के गले में बंधे हुए घण्टों में ध्वनियां उत्पन्न होने लगीं। शिवाजी की इस पराक्रमी सेना के सम्मुख विभिन्न देशों के राजा-महाराज पल भर भी न ठहर सके अर्थात सेना का सामना कर पाने में समर्थ न हो सके। शिवाजी महाराज की सेना के चलने के कारण बड़े-बड़े पहाड हिलने-डुलने लगे हैं।गांव और नगरों के लोग पहाड़ो के खिसकने की आवाजें सुनकर इधर-उधर भागने लगे। शिवाजी महाराज की सेना के नगाड़ों के बजने से भी यही प्रभाव पड़ रहा था। शत्रु-सेना के हाथियों पर बंधे हुए हौदे उसी तरह खुल गये, जैसे हाथियों के उपर रखे युए घड़े हों। इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर, रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं। पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर, ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं॥ दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर, 'भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं। तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर, त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज हैं॥ भावार्थ: जिस प्रकार जंभासुर पर इंद्र, समुद्र पर बड़वानल, रावण के दंभ पर रघुकुल राज, बादलों पर पवन, रति के पति अर्थात कामदेव पर शंभु अर्थात भगवान शिव, सहस्त्रबाहु पर परशुराम, पेड़ों के तनों पर दावानल, हिरणों के झुंड पर चीता, हाथी पर शेर, अंधेरे पर प्रकाश की एक किरण, कंस पर कृष्ण भारी हैं उसी प्रकार म्लेच्छ वंश पर शिवाजी शेर के समान हैं। ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी, ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं। कंद मूल भोग करैं, कंद मूल भोग करैं, तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं॥ भूषन शिथिल अंग, भूषन शिथिल अंग, बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं। 'भूषन भनत सिवराज बीर तेरे त्रास, नगन जडातीं ते वे नगन जडाती हैं॥ उद्वत अपार तुअ दुंदभी-धुकार-पाथ लंघे पारावार बृंद बैरी बाल्कन के। तेरे चतुरंग के तुरंगनि के रँगे-रज साथ ही उड़न रजपुंज है परन के। दच्छिण के नाथ सिवराज तेरे हाथ चढ़ै धनुष के साथ गढ़-कोट दुरजन के। भूषण असीसै तोहिं करत कसीसैं पुनि बाननिके साथ छूटे प्रान तुरकन के। संदर्भ: यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है। प्रसंग : भूषण ने इस पद में शिवाजी महाराज की सेना की वीरता का वर्णन किया है . व्याख्या: भूषण कहते हैं कि शिवाजी की सेना के युद्ध की रणभेरीयों की भयंकर आवाज को सुनकर शत्रुओं के बच्चे समुद्र लांग जाते हैं . चतुरंगी सेना में घोड़ों के शरीर से उड़ने वाली धूल से भयभीत होकर शत्रुओं के होस उड़ जाते हैं| हे दक्षिण के स्वामी शिवाजी जब आप अपने हाथ में धनुष उठाते हो तो शत्रु अपने दुर्ग और किले छोड़ कर भाग जाते हैं. भूषण कहते हैं की मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि जब तुम अपने धनुष से बाण खींचते हैं तो उसके साथ तुर्कों के प्राण भी निकल जाते हैं छूटत कमान और तीर गोली बानन के, मुसकिल होति मुरचान की ओट मैं। ताही समय सिवराज हुकुम कै हल्ला कियो, दावा बांधि परा हल्ला बीर भट जोट मैं॥ 'भूषन' भनत तेरी हिम्मति कहां लौं कहौं, किम्मति इहां लगि है जाकी भट झोट मैं। ताव दै दै मूंछन, कंगूरन पै पांव दै दै, अरि मुख घाव दै-दै, कूदि परैं कोट मैं॥ शिवा-बावनी – ५ / Shiva Baavani – 5 बाजी गजराज सिवराज सैन साजत ही, दिल्ली दिलगीर दसा दिरघ दुखन की। तनीयाँ न तिलक सुथनियाँ पगनियाँ न, घामै घुमरातीं छोड़ि सेजियाँ सुखन की।। ‘भूषन’ भनत पति बाँह बहियाँन तेऊ, छहियाँ छबीली ताकि रहियाँ रुखन की। बालियाँ बिथुरि जिमि आलियाँ निलन पर, लालियाँ मलिन मुगलानियाँ मुखन की।। शब्दार्थ: बाजी = घोड़ा । गजराज = बड़े-बड़े हाथी । दिलगीर = (फ़ारसी) दुखी, रंजिदा । तनीयाँ = चोली । तिलक = (तिरलीक़) एक तरह का ढीला-ढाला कुरता; पगनियाँ = पगों में पहनने की जूतियाँ, पन्हइयाँ । सुथनियाँ = पायजमा । घामैं = घाम में, धूप में । घुमरात = घबरा कर भागती फिरती हैं । रूख = पेड़ । आलियाँ (अलियाँ) = भौंरा । नलिन = कमल । लालियाँ = सुर्खी, सुन्दारता । भावार्थ: शिवाजी महाराज की सेना के द्वारा अपने घोड़ों और हाथियों को युद्ध के लिये सजाते ही दिल्ली के बादशाह की दशा बिगड़ने लगती है। इसको देखकर, उनकी स्त्रियों के सिर पर वस्त्र, पाजामा, और जूतियाँ भी व्यवस्थित नहीं रह पाति। सेज पर सोने का सुख त्याग कर धूप में इधर-उधर भागती फिरती हैं। भूषण कवि कहते हैं कि, जिन नई-नवेली दुल्हनों को अपने-अपने पतियों की बाहों में विश्राम करने का सुख उठाना चाहिये था, वे महल के बाहर जंगलों में पेड़ों की छाया तलाश करती भटक रही हैं। उन सुंदरियों के केश इस तरह बिखर गये हैं, जैसे कमल पुष्प पर भंवरों के झुंड उड़ रहे हों। मुगल-स्त्रियों के मुखों की लालिमा मलिन पड़ गयी है। बेद राखे बिदित, पुरान राखे सारयुत, रामनाम राख्यो अति रसना सुघर मैं। हिंदुन की चोटी, रोटी राखी हैं सिपाहिन की, कांधे मैं जनेऊ राख्यो, माला राखी गर मैं॥ मीडि राखे मुगल, मरोडि राखे पातसाह, बैरी पीसि राखे, बरदान राख्यो कर मैं। राजन की हद्द राखी, तेग-बल सिवराज, देव राखे देवल, स्वधर्म राख्यो घर मैं॥ संदर्भ: यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है। प्रसंग : भूषण ने इस पद के माध्यम से शिवाजी की धर्म निष्ठा बताइए है कि उन्होंने किस प्रकार भारतीय धर्म की रक्षा कि है। व्याख्या: कवि भूषण ने शिवाजी को धर्म-रक्षक वीर के रूप में चित्रित किया है। जब औरंगजेब सम्पूर्ण भारत में देवस्थानों को नष्ट कर रहा था, वेद-पुराणों को जला रहा था, हिन्दुओं की चोटी कटवा रहा था, ब्राह्मणों के जनेऊ उतरवा रहा था और उनकी मालाओं को तुड़वा रहा था, तब शिवाजी महाराज ने ही मुगलों को मरोड़ कर और शत्रुओं को नष्ट कर सुप्रसिद्ध वेद- पुराणों की रक्षा की, लोगों को राम नाम लेने की स्वतंत्रता प्रदान की, हिन्दुओं की चोटी रखी, सिपाहियों को अपने यहाँ रखकर उनको रोटी दी, ब्राह्मणों के कंधे पर जनेऊ, गले में माला रखी। देवस्थानों पर देवताओं की रक्षा की और स्वधर्म की घर-घर में रक्षा की। ब्रह्म के आनन तें निकसे अत्यंत पुनीत तिहूँ पुर मानी, राम युधिष्ठिर के बरने बलमीकहु व्यास के अंग सोहानी. भूषण यों कलि के कविराजन राजन के गुन गाय नसानी, पुन्य चरित्र सिवा सरजे सर न्हाय पवित्र भई पुनि बानी . राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान को तिलक राख्यौ, अस्मृति पुरान राखे वेद धुन सुनी मैं राखी रजपूती राजधानी राखी राजन की, धरा मे धरम राख्यौ ज्ञान गुन गुनी मैं भूषन सुकवि जीति हद्द मरहट्टन की, देस देस कीरत बखानी सब सुनी मैं साहि के सपूत सिवराज शमशीर तेरी, दिल्ली दल दाबि के दिवाल राखी दुनी मैं गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर, दावा नाग जूह पर सिंह सिरताज को दावा पूरहूत को पहारन के कूल पर, दावा सब पच्छिन के गोल पर बाज को भूषण अखंड नव खंड महि मंडल में, रवि को दावा जैसे रवि किरन समाज पे पूरब पछांह देश दच्छिन ते उत्तर लौं, जहाँ पातसाही तहाँ दावा सिवराज को तेरे हीं भुजान पर भूतल को भार, कहिबे को सेसनाग दिननाग हिमाचल है. तरो अवतार जम पोसन करन हार, कछु करतार को न तो मधि अम्ल है. सहित में सरजा समत्थ सिवराज कवि, भूषण कहत जीवो तेरोई सफल है. तेरो करबाल करै म्लेच्छन को काल बिनु, काज होत काल बदनाम धरातल है. ता दिन अखिल खलभलै खल खलक में, जा दिन सिवाजी गाजी नेक करखत हैं. सुनत नगारन अगार तजि अरिन की, दागरन भाजत न बार परखत हैं. छूटे बार बार छूटे बारन ते लाल, देखि भूषण सुकवि बरनत हरखत हैं . क्यों न उत्पात होहिं बैरिन के झुण्डन में, करे घन उमरि अंगारे बरखत हैं प्रेतिनी पिसाच अरु निसाचर निशाचरहू, मिलि मिलि आपुस में गावत बधाई हैं. भैरो भूत-प्रेत भूरि भूधर भयंकर से, जुत्थ जुत्थ जोगिनी जमात जुरि आई हैं. किलकि किलकि के कुतूहल करति कलि, डिम-डिम डमरू दिगम्बर बजाई हैं. सिवा पूछें सिव सों समाज आजु कहाँ चली, काहु पै सिवा नरेस भृकुटी चढ़ाई हैं. इंद्र निज हेरत फिरत गज इंद्र अरु, इंद्र को अनुज हेरै दुगध नदीश कौं. भूषण भनत सुर सरिता कौं हंस हेरै, विधि हेरै हंस को चकोर रजनीश कौं. साहि तनै सिवराज करनी करी है तैं, जु होत है अच्मभो देव कोटियो तैंतीस को. पावत न हेरे जस तेरे में हिराने निज, गिरि कों गिरीस हेरैं गिरजा गिरीस को. दाढ़ी के रखैयन की दाढ़ी सी रहत छाती, बाढ़ी मरजाद जसहद्द हिंदुवाने की कढ़ी गईं रैयत के मन की कसक सब, मिटि गईं ठसक तमाम तुकराने की भूषण भनत दिल्लीपति दिल धक धक, सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की मोटी भई चंडी,बिन चोटी के चबाये सीस, खोटी भई अकल चकत्ता के घराने की सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग, ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे . जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर, कीन्हों न सलाम, न बचन बोलर सियरे. भूषण भनत महाबीर बलकन लाग्यौ, सारी पात साही के उड़ाय गए जियरे . तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयो, स्याम मुख नौरंग, सिपाह मुख पियरे. संदर्भ: यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है। प्रसंग : इस कवित्त में मुगलदरबार में आयोजित शिवाजी की औरंगजेब से भेंट का वर्णन है। शिवाजी को छह हजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा किया गया था। इस अपमान को शिवाजी सहन न कर सके और भरे दरबार में क्रोधावेश में बड़बड़ाने लगे। उसी दृश्य का चित्रण इस पद में प्रस्तुत किया गया है। व्याख्या: जो सरजा शिवाजी मुगल दरबार में सबसे ऊपर खड़े होने योग्य थे उनको अपमानित करने की नियत से औरंगजेब ने उन्हें छःहजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। अपने प्रति किये गये इस अनुचित व्यवहार से गुस्साबर शिवाजी अत्यधिक कुपित हो उठे और उस समय अवसर की मर्यादा के अनुकूल न तो शंहशाह औरंगजेब को सलाम किया और न विनम्र शब्दों का ही प्रयोग किया। भूषण कहते हैं कि महाबली शिवाजी क्रोधावेश से गरजने लगे और उनके इस क्रोधावस्था के व्यवहार को देखकर मुगलदरबार के सभी लोगों के जी उड गये। अर्थात् भय से हक्का-बक्का हो गये। व स लाल हुए शिवाजी के मखमण्डल को देखकर औरंगजेब का मुंह काला हो गया आर सिपाहियों के मख भय की अतिशयता के कारण पीले पड़ गये। दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की, बाँधिबो नहीं है कैंधो मीर सहवाल को. मठ विश्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को, देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को. गाढ़े गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें, ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को. बूड़ति है दिल्ली सो सँभारे क्यों न दिल्लीपति, धक्का आनि लाग्यौ सिवराज महाकाल को. चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार, दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है. बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति, फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है. थर थर काँपत क़ुतुब साहि गोलकुंडा, हहरि हवस भूप भीर भरकति है. राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि, केते बादसाहन की छाती धरकति है. जिहि फन फुत्कार उड़त पहाड़ भार, कूरम कठिन जनु कमल बिदगिलो. विवजल ज्वालामुखी लवलीन होत जिन, झारन विकारी मद दिग्गज उगलिगो. कीन्हो जिहि पण पयपान सो जहान कुल, कोलहू उछलि जलसिंधु खलभलिगो. खग्ग खगराज महराज सिवराज जू को, अखिल भुजंग मुगलद्द्ल निगलिगो. राजत अखण्ड तेज छाजत सुजस बड़ो, गाजत गयंद दिग्गजन हिय साल को। जाहि के प्रताप से मलीन आफताब होत, ताप तजि दुजन करत बहु ख्याल को।। साज सजि गज तुरी पैदरि कतार दीन्हें, भूषन भनत ऐसो दीन प्रतिपाल को? और राव राजा एक चिन्त में न ल्याऊँ अब, साहू को सराहौं कि सराहौं छत्रसाल कों।। संदर्भ: यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है। प्रसंग : पन्ना नरेश छत्रसाल के जनता के प्रति व्यवहार और उनके शौर्य का वर्णन। व्याख्या: अखण्ड तेज से विभूषित, जिनकी कीर्ति चारो ओर फैली है, जिनकी सेना और उसके हाथियों की चित्कार से दिशा-दिशा के राजाओं के हृदय में भय भर जाता है। जिसके प्रताप को सुनकर विधर्मियों के चेहरों की रौनक गायब हो जाती है। ऐसा राजा जो ब्राह्मणों अर्थात सज्जनों के ताप यानी कष्ट को हर कर उनकी पूरी चिन्ता करता है। जो सदैव अपनी सुसज्जित सेना, पैदल सिपाहियों के साथ राज्य की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहता है। ऐसे छत्रसाल को छोडक़र भला भूषण अपने मन में किस राजा के लिए सम्मान देख सकता है। भूषण कहते हैं, मेरा मन तो कभी-कभी भ्रम में पड़ जाता है कि साहू (शिवाजी के पौत्र) को सराहूँ या छत्रसाल को। दोनों में तुलना नहीं की जा सकती । अर्थात दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अप्रतिम हैं। देस दहपट्टि आयो आगरे दिली के मेले बरगी बहरि' चारु दल जिमि देवा को। भूपन भनत छत्रसाल, छितिपाल मनि ताकेर ते कियो बिहाल जंगजीति लेवा को।। खंड खंड सोर यों अखंड महि मंडल में मंडो तें धुंदेल खंड मंडल महेवा को। दक्खिन के नाथ को कटक रोक्यो महावाहु ज्यों सहसवाहु नै प्रबाह रोक्यो नेवा को॥ संदर्भ: यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है। प्रसंग : इस पद के माध्यम से भूषण छत्रसाल महाराज की वीरता की प्रशंसा करते हैं व्याख्या: भूषण कवि कहते हैं कि सरकारी घोड़ों पर राजकाज करने वाले सिपाहियों ने देश को उजाड़ कर आगरा और दिल्ली की सीमा में आ गये। मानों वह मनुष्य की सेना ना होकर राक्षस की सेना हो। हे धरती के स्वामी छत्रसाल महाराज उसको तूने जंग में जीतकर बेहाल कर दिया। तूने संपूर्ण सौरमंडल में दुश्मनों की महिमा को खंड खंड कर के बुंदेलखंड और महेवा को महिमामंडित किया है। दक्षिण के नाह को छत्रपाल ने कटक में एसे रोका जैसे हजार बांन वाले अर्जुन ने रेवा के प्रभाव को रोक दिया था
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं| मंथन है परिवर्तन का, अभी और तमाशा होने दो, यहाँ कितनों के भीतर छिपा है जिन्ना, ये और ख़ुलासा होने दो| सब नकाब उतारें जॉएँगे, सब चेहरे सामने आएंगे। कुछ तो बात है मेरे देश की मिट्टी में साहेब, सरहदें कूद के आते हैं लोग यहाँ दफ़न होने के लिए।
विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸वृथा जिये¸ नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए। यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸ उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती; तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।। सहानुभूति चाहिए¸महाविभूति है वही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही। विरुद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸ विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे? अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸ वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸ समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े। परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸ अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी। रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। "मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸ पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है। फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸ परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं। अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸ विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए। घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸ अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी। तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। ~ मैथिलीशरण गुप्त
चमन को सींचने में कुछ पत्तियां झड़ गई होंगी, यहीं इल्जाम लग रहा है, हम पर बेवफाई का। चमन को रौंद डाला, जिन्होंने अपने पैरों से, वही दावा कर रहे हैं, इस चमन की रहनुमाई का।। रेत के नीचे दबी मक्खी को घमंड था, ऊंची ईमारत की नीव उसी से है। बारिश ने नाली में बहा दिया तो, घर को अहसानफरामोश बताने लगा।। घर की बुनियाद तोड़ने वाले पत्थरबाज, अपने को इस समाज का हिस्सा कहते हैं। दावा करते थे जो बुनियाद की पत्थर का, ईमारत गिराने में सबसे आगे दिखे। आँखें कितना रोती हैं जब उंगली अपनी जलती है, सोचो उस तड़पन की हद जब जिस्म पे आरी चलती है॥ बेबसता तुम पशु की देखो बचने के आसार नहीं, जीते जी तन काटा जाए उस पीडा का पार नहीं॥ खाने से पहले बिरयानी चीख जीव की सुन लेते, करुणा के वश होकर तुम भी गिरी गिरनार को चुन लेते॥
Reference: विनय मिश्रा योगी पहले चरण छूते थे अब घुटने। जो चरण छूते हैं, बचे कितने।। पहले शिक्षा और छात्र की नीति। अब स्कूल पैसा और राजनीति।। समय बदलता है तो बदलने दो। मेरे दोस्त आदर्शों को रहने दो।।
इस कौम ए फ़सादत का बस ये ही निशाना है, बस्तियाँ हिंदुओं की जलानी हैं मुआवज़ा स्वयम् लेना है। चिराग बुझ गए हैं जिस शहर के घरों में, सुना है बिजली और पानी फ़्री है उस शहर में।
शेखुलर हरकतें, सड़क पर फैसला करेंगे, शहर में जलजला करेंगे। मजहबी चादर बिछाएंगे, झूठ का सिलसिला करेंगे। पत्थर भी वही उछालेंगें, वीरान हर मोहल्ला करेंगे। खुद ही आग लगाएंगे, खुद ही हल्ला करेंगे। --भूपेंद्र सोनी 'शजर'
बिल्कुल यह शहर भी हमारा है और बरसात भी खूब हुई है। तुम तो बस मुग़लों की तारा लूटने आए थे ! और जहां तक गलतफहमी की बात है। हमने तो भाई कभी कुत्ता भी नहीं पाला, गलतफहमी तो बहुत दूर की बात है।
सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है, भगवा और हिंदुत्व के नाम से हर गद्दार परेशान सा क्यूँ है? गद्दार नहीं खुद्दार चाहिये कमजोर नहीं दमदार चाहिये, तुम्हें मुबारक वंशवादी शहजादे, हमें तो अपना "चौकीदार" चाहिये !
ॐ
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो, किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान। फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले ! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है । मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार । वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है। पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में। समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा। समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं। कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे। समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो, शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो, पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे, समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे। समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर, खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर। समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं, गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं, समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है, वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है। समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल, विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल, तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना, सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना, बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे, मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे। समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध। ~ रामधारी सिंह "दिनकर"
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा, पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा? क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो। तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे। उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से। सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज दासता ग्रहण की बँधा मूढ़ बन्धन में। सच पूछो, तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की। सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।
Reference: Anand Raj Singh
तुम हर अखबार में विक्टिम कहलाओगे, हमें मालूम था, कलम देकर उन्हें हर हर्फ़ खुद लिखवाओगे, हमें मालूम था, हमें ही मारकर एक दिन, हमें दंगाई बताओगे, हमें मालूम था, तुम आसमां में इंकलाब लिख, दारुल इस्लाम का ख्वाब छुपाओगे, हमें मालूम था।
हर झूठ जो तुमने खुद लिखा, हर झूठ जो लिखवाया है, हर आग जो तुमने जलने दी, हर घर जो जलवाया है, पत्थर की हर मार को, ऐसिड की हर बौछार को, चाकू की हर उस धार को, नाले से निकली हर लाश को, तुम्हारे शोषित होने के मोहपाश को, मरते दम तक ज़ेहन में बर्बाद रखा जाएगा, सब याद रखा जाएगा।
तुम लाल सलाम लिखो, हम साम्यवाद के क़त्लेआम लिखेंगे, तुम शाहीन बाग लिखो, हम तुम्हारे आंसुओं का झूठ सरेआम लिखेंगे, तुम लिखो फ़क हिंदुत्व, हम इस्लामिक ज़ुल्म तमाम लिखेंगे, और जिस धरती में तुम कब्र खोदोगे हमारी, उसकी मिट्टी के हर कण से जय श्री राम लिखा जाएगा, सब याद रखा जाएगा।
हम आखरी सांसों तक चाहे तोहमतें सह लें, झूठे इतिहास की हर परत को खाख लिखा जाएगा, गंगा जमुनी तहज़ीब का हर एकतरफा भार, तुम्हारे लश्कर के हर शख्स का हिसाब लिखा जाएगा, सब याद रखा जाएगा। सब कुछ याद रखा जाएगा।। तुम याद राखो ना रखो पर हमारे मस्तिष्क में, सब कृत्य अंकित है। बाबर से लेकर ताहिर तक हाथ इनके तो रक्त रंजित है, नाले से झाँकता हाथ अब दिलो में अंकित है। औरंगजेब के वारिस से पूरी दिल्ली कलंकित है। हिंदुस्तान मे हिन्दुओं को मिटाने के सपने कभी ना कभी पुरे हुऐ थे, ना आगे कभी होंगे। आए हजारो सितमगर मुहम्मद बिन कासीम से बहादुर शाह जफर तक पर हिन्दू को ना मिटा सके।। जिसको ना निज गौरव ना निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है.
Dr. A. K. Singh
मैं मान लेता की जो पहले हुआ था, आगे न दोहराया जाएगा शायद, अगर तुम लाखों का हुजूम लेकर, याकूब मेनन के जनाजे में न जाते। मुझे यकीन भी हो जाता कि हम, दुबारा गुलाम नही बनेंगे कभी अगर, मुम्बई धमाके में मासूमों की मौत को, तुम चंद महीनों में नही भूल पाते। देश और लोकतंत्र तुम्हारे लिए मायने रखते, तुम भी मेरी तरह देशभक्त हो गद्दार नही, यह समझना मुश्किल न था अगर, तुम अफजल को क्रांतिकारी न बतलाते। गंगा-जमुनी तहजीब की नौटंकी पर, आँख मूँद कर विश्वास कर लेता अगर, जिन बेगुनाहों को तुम जानते तक नही, उन्हें गोधरा में यों जिंदा न जलाते।
छल कपट व पाप भरा था उसके ही मंसूबों में, वो कातिल तब पलता था वटबारे के बीजों में। आज धरा पर जागे है भाव वहीं कुछ कीड़ों में, जिन्ना हर बार मिटेगा पैदा हुआ है जो कुछ सीनो में।। अगर यहीं के हो तो इतना डर कैसे? अगर चोरी से घुसे हो तो ये तुम्हारा घर कैसे? अगर अमन पसंद हो तो इतना ग़दर कैसे? जिसे ख़ुद ख़ाक कर रहे हो वो तुम्हारा शहर कैसे? पेलेंगे हम पेलेंगे, बिना तेल के पेलेंगे। बस नाम रहेगा दल्ला का जो तुम भी हो और वो भी है। जो तशरीफ़-इ-अज़ल से लिखा था, हम फेंकेंगे,लाज़िम है हम फेकेंगे। ~अनाम
मैं नफरत बांटता शाखा संघ का, तुम मदरसे में चलती शांति पाठ प्रिये, मैं नरसंहार करता लठ लेकर, तुम AK-47 से बांटती प्यार प्रिये... मैं थोपा गया ब्लाउज-साड़ी, तुम मनमर्जी की हिजाब हो, मैं प्रतीक हूँ पत्रियाकि का, तुम आधुनिक लाजवाब हो... मैं आतंक का पर्याय गोडसे, तुम बुरहान सी भटकी नौजवान हो, मैं रिप्रेजेंटेटिव हिन्दू समाज का, तुम शांतिदूतों में अपवाद हो.... तु पढा लिखा कांग्रेसी चमचा, मै मोदी भक्त शुद्ध ग्वार प्रिय. तु गुलाम एक खानदान का, मै आत्मनिर्भर चौकीदार प्रिय।। रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा, हिंसा विध्वंस में लिप्त मानव भी शांतिप्रिय कहलाएगा। रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा, खुल के झूठ बोलने वाला, फ्री थिंकर कहलाएगा। वही डरेंगे जो शामिल हो गये तेरे कारोबार मे, सुन सोनिया अर्नब नही झुकेगे तेरे दरबार मे.
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती। तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥ भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं। सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥ हाथों में नफरत की आरी है, आँगन में छिपे कसाई हैं| जो भारत के टुकड़े-टुकड़े चाहे, कैसे कह दूँ भाई है।। ~अनाम
अविरल निश्चल, अडिग व अचल, हिन्दु कर निश्चय तू चल। विडमनाओं का है उफान, कर रहा अधर्मी मान। विश्व का है, तू प्राण। मनु पौत्रों, का बढ़ाया मान। भर तू हुंकार, शक्ति का बढ़ा आकार, कुचल चल अधर्म, धर्म हीं है तेरा कर्म। अविरल निश्चल, अडिग व अचल, हिन्दु कर निश्चय तू चल।
Jhansi ki Rani ~ Subhadra Kumari Chauhan :: झाँसी की रानी ~ सुभद्रा कुमारी चौहान
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में। चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई। निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'। यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में। ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी। पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी, दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गरजता बार बार प्राची पश्चिम भू नभ अपार; सब पूछ रहे हैं दिग-दिगन्त, वीरों का कैसा हो वसंत फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुंचा अनंग वधु वसुधा पुलकित अंग अंग; है वीर देश में किन्तु कंत, वीरों का कैसा हो वसंत भर रही कोकिला इधर तान मारू बाजे पर उधर गान है रंग और रण का विधान; मिलने को आए आदि अंत, वीरों का कैसा हो वसंत गलबाहें हों या कृपाण चलचितवन हो या धनुषबाण हो रसविलास या दलितत्राण; अब यही समस्या है दुरंत, वीरों का कैसा हो वसंत कह दे अतीत अब मौन त्याग लंके तुझमें क्यों लगी आग ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग; बतला अपने अनुभव अनंत, वीरों का कैसा हो वसंत हल्दीघाटी के शिला खण्ड ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड राणा ताना का कर घमंड; दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत, वीरों का कैसा हो वसंत भूषण अथवा कवि चंद नहीं बिजली भर दे वह छन्द नहीं है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं; फिर हमें बताए कौन हन्त, वीरों का कैसा हो वसंत
श्री गोपाल दास व्यास
वह खून कहो किस मतलब का जिसमें उबाल का नाम नहीं, वह खून कहो किस मतलब का आ सके देश के काम नहीं। वह खून कहो किस मतलब का जिसमें जीवन, न रवानी है! जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है! उस दिन लोगों ने सही-सही खून की कीमत पहचानी थी। जिस दिन सुभाष ने बर्मा में मॉंगी उनसे कुरबानी थी। बोले, "स्वतंत्रता की खातिर बलिदान तुम्हें करना होगा। तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा। आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी। वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूँथी जाएगी। आजादी का संग्राम कहीं पैसे पर खेला जाता है? यह शीश कटाने का सौदा नंगे सर झेला जाता है" यूँ कहते-कहते वक्ता की आंखों में खून उतर आया! मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा दमकी उनकी रक्तिम काया! आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले, "रक्त मुझे देना। इसके बदले भारत की आज़ादी तुम मुझसे लेना।" हो गई सभा में उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे। स्वर इनकलाब के नारों के कोसों तक छाए जाते थे। "हम देंगे-देंगे खून" शब्द बस यही सुनाई देते थे। रण में जाने को युवक खड़े तैयार दिखाई देते थे। बोले सुभाष, "इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है। लो, यह कागज़, है कौन यहॉं आकर हस्ताक्षर करता है? इसको भरनेवाले जन को सर्वस्व-समर्पण काना है। अपना तन-मन-धन-जन-जीवन माता को अर्पण करना है। पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है। इस पर तुमको अपने तन का कुछ उज्जवल रक्त गिराना है! वह आगे आए जिसके तन में खून भारतीय बहता हो। वह आगे आए जो अपने को हिंदुस्तानी कहता हो! वह आगे आए, जो इस पर खूनी हस्ताक्षर करता हो! मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए जो इसको हँसकर लेता हो!" सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं! माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्त चढाते हैं! साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे! चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्त गिराते थे! फिर उस रक्त की स्याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे! आज़ादी के परवाने पर हस्ताक्षर करते जाते थे! उस दिन तारों ने देखा था हिंदुस्तानी विश्वास नया। जब लिखा महा रणवीरों ने ख़ूँ से अपना इतिहास नया।
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥ जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई। वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥ कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं। उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥ हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती। तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥ इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है। इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥ भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं। सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥ लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया। पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥ बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है। कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥ दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे। गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥ उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें। जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥ – अटल बिहारी वाजपेयी – Atal Bihari Vajpayee
दुष्यंत कुमार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए|
वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है। मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे! दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें। उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल, भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, सब हैं मेरे मुख के अन्दर। दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर। शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र। शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश, शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल। जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें। भूलोक, अतल, पाताल देख, गत और अनागत काल देख, यह देख जगत का आदि-सृजन, यह देख, महाभारत का रण, मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान, इसमें कहाँ तू है। अम्बर में कुन्तल-जाल देख, पद के नीचे पाताल देख, मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख। सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं। जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, साँसों में पाता जन्म पवन, पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर! मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, छा जाता चारों ओर मरण। बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है? यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन। सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है? हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना, तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ। याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा। टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर, फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा। दुर्योधन! रण ऐसा होगा, फिर कभी नहीं जैसा होगा। भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे, वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर, दायी होगा। थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े। केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
ये कपटी, ये पत्थरबाजों, ये जिस्म-फरोशों की दुनिया, ये हिन्दुओं के दुश्मन समाजों की दुनिया, ये तुष्टिकरण के भूखे, झूठे धर्मपरायणों की दुनिया, इन्हें दुनियाअगर मिल भी जाए तो कम है, इन्हें दुनिया अगर मिल भी जाए तो कम है। यहाँ इक खिलौना है हिन्दुओं की संजीदगी, शान्ति के नाम पे बस्ती है मुर्दा-परस्तों का फतवा, यहाँ पर तो जीवन से हलाला है सस्ती, इन्हें दुनिया अगर मिल भी जाए तो कम है, इन्हें दुनिया अगर मिल भी जाए तो कम है।
Veer Kunwar Singh
कहते हैं एक उमर होती, दुश्मन से लड़ भिड़ जाने की, कहते हैं एक उमर होती, जीवन में कुछ कर जाने की। लेकिन है ये सब लफ़्फ़ाज़ी, कोई उम्र नहीं कुछ करने की, गर बात वतन की आये तो, हर रुत होती है मरने की। ये सबक हमें है सिखलाया, इक ऐसे राजदुलारे ने, सन सत्तावन की क्रांति में, जो प्रथम था बिगुल बजाने में। अस्सी की आयु थी जिसकी, पर लहू राजपूताना था, थे कुँवर सिंह जिनको सबने, फिर भीष्म पितामह माना था। जागीरदार वो ऊँचे थे, अंग्रेजों का मन डोला था, उस शाहाबाद के सिंहम पर, गोरों ने हमला बोला था। फ़रमान मिला पटना आओ, गोरे टेलर ने बोला था, पटना ना जाकर सूरा ने, खुलकर के हल्ला बोला था। सन सत्तावन की जंग अगर, इतनी प्रचंड हो पाई थी, था योगदान इनका महान, जमकर हुड़दंग मचाई थी। नाना टोपे मंगल पांडे, वो सबके बड़े चहेते थे, भारत माता की अस्मत के, सच्चे रखवाले बेटे थे। चतुराई से मारा उनको, गोरे बर्षों कुछ कर ना सके, छापेमारी की शैली से, अंग्रेज फ़िरंगी लड़ ना सके। वन वन भटका कर लूटा था, सालों तक उन्हीं लुटेरों को, है नमन तुम्हें हे बलिदानी, मारा गिन गिन अंग्रेजों को।
भारत माता सिसक रही हैं, तुम सब की नादानी पर, तुम जमीर को बेच दिए, केवल बिजली व पानी पर ।। तुम बोले मंदिर बनवाओ, 'उसने' काँटा साफ किया, और तीन सौ सत्तर धारा वाला स्विच ही ऑफ किया, इच्छा यही तुम्हारी थी, घुसपैठी भागें भारत से, लाकर के कानून हौंसला घुसपैठी का हाफ किया। राणा-वीर शिवा के वंशज,रीझे कुटिल कहानी पर। तुम जमीर को बेच दिए,केवल बिजली व पानी पर ।।1।। रेप किए, छाती काटा, माँ-बहनों सँग हैवानी की, याद न आया चार लाख हिंदू के करुण कहानी की, न्याय दिलाना चाहा 'वो' तो तुमने ये अंजाम दिया? कोसेगा इतिहास, करेगा मंथन कारस्तानी की । अपनों से ज्यादा विश्वास किए तुम पाकिस्तानी पर। तुम जमीर को बेंच दिए, केवल बिजली व पानी पर ।।2।। 'उनके' बच्चे-बच्चे समझें, किसको वोट नहीं देना, टुकड़े-टुकड़े करें देश का, फिर भी खोट नहीं देना, 'तीन तलाक' महामारी, आजाद किया खातूनों को, लेकिन धरने पर बैठी हैं, पति को चोट नहीं देना। कैसे कोई करे भरोसा, अपने हिंदुस्तानी पर। तुम जमीर को बेंच दिए, केवल बिजली व पानी पर।।3।। क्या कसूर था 'सीएए' पर, 'वो' अड़ गया बताओ तो? क्या कसूर था पाकिस्तानी पर चढ़ गया बताओ तो? तुमने जो-जो मांग किया, सब पर कानून बनाया 'वो', यदि 'एनारसी' पर थोड़ा आगे बढ़ गया बताओ तो? राणा - शिवाजी की धरती पर, वोट किए हैवानी पर, तुम जमीर को बेच दिए, केवल बिजली व पानी पर ।।4।। सीट तीन सौ तीन मिली थी, फिर क्यों रिस्क उठाया 'वो'? भ्रष्टाचारी एक हुए सब, फिर भी क्या घबराया 'वो' ? तुम पर 'उसे' भरोसा था, इस खातिर कदम बढ़ाया 'वो', 'तुम रोहिंग्या के साथी हो', इतना समझ न पाया 'वो'! देखो 'वे' सब एक हो गईं, पत्तल भर बिरियानी पर। तुम जमीर को बेंच दिए, केवल बिजली व पानी पर ।।5।। पन्नादाई अगर सुनीं तो तुम सबको दुत्कारेंगी, लक्ष्मीबाई वहाँ स्वर्ग से थूकेंगी, फटकारेंगी, जीजाबाई रोंएंगी, बिलखेंगी, तुम्हें निहारेंगी, बस यात्रा क्या मिली मुफ्त, द्रोही को आप सँवारेंगी? दिल्ली की महिलाएं रीझीं, अफजल और गिलानी पर। तुम जमीर को बेंच दिए, केवल बिजली व पानी पर ।।6।। जीत नहीं ये झाड़ू की है, तालीबानी जीत गए, शाहिनबाग नहीं जीता है, अफजल - बानी जीत गए, जेएनयू जीता है अबकी, रोहिंग्या भी जीत गए, सच्चे हिंदुस्तानी हारे, पाकिस्तानी जीत गए। एक वोट भी दे नहीं पाए, शहीदों की कुर्बानी पर। तुम जमीर को बेच दिए, केवल बिजली व पानी पर ।।7।। साभार - सुरेश मिश्र
धरा हिला, गगन गुँजा नदी बहा, पवन चला विजय तेरी, विजय तेरी ज्योति सी जल, जला भुजा–भुजा, फड़क–फड़क रक्त में धड़क–धड़क धनुष उठा, प्रहार कर तू सबसे पहला वार कर अग्नि सी धधक–धधक हिरन सी सजग सजग सिंह सी दहाड़ कर शंख सी पुकार कर रुके न तू, थके न तू झुके न तू, थमे न तू सदा चले, थके न तू रुके न तू, झुके न तू ∼ हरिवंश राय बच्चन
Bharat Needs to be Awakened
जिंदगी है बेदर्द बड़ा, दर्द तुम पर थोपा ही जायेगा, युद्धों से कहाँ भागते हो काफिर है तुम पर जिहाद का साया, युद्ध तुम पर थोपा ही जायेगा। स्वयं देना सिख लो, रक्त रंजीत रक्त तुम्हारा छिना ही जायेगा, प्राण देना सिख लो, स्वाभिमान तुम्हारा रौंदा ही जायेगा। धर्म-योद्धाओं को मान देना सिख लो, अभिमान तुम्हारा तोड़ा ही जाएगा। धन के पीछे क्यों भागते हो काफिर, धर्म-दान देना सिख लो है तुम पर जिहाद का साया, धन-धान्य, आबरू तुम्हारा लुटा ही जायेगा। भागते-भागते हो काफिर, कब तक भागोगे काफिर, कहाँ तक भागोगे काफिर? है तुम पर जिहाद का साया, हर स्थली तो कश्मीर बनाया ही जायेगा। भाग्य को न कोस काफिर, सहस से काम ले, पुरुषार्थहीन यूँ ही सोये रहे तो दुर्भाग्य तेरा लिखा ही जायेगा। इतिहास को न कोस काफिर, इसके पन्नों से सिख ले, नि:शब्द यूँ ही मौन रहे तो अंजाम ये तेरा दोहराया ही जायेगा। कब तक बनोगे रणछोड़ काफिर, रणकौशल सिख़लो है तुम पर जिहाद का साया, पग-पग रणभूमि सजाया ही जायेगा। कब तक मिटटी रहेगी हमारी हस्तियां, कब तक उजड़ते रहेंगे हमारी बस्तियां, समय आ गया है रक्त अपने उबाल लो, अस्त्र-शस्त्र संभाल लो है तुम पर जिहाद का साया। आंच तेरे अस्तित्व पर आया, अब पुनः महाभारत सजाना ही पड़ेगा। ~ YouTube post
Reference: अमित शुक्ल 'अमित आनंद' at https://www.youtube.com/watch?v=z7K_uNKqgMc प्रेम का सागर लिखूं, या चेतना का चिंतन लिखूं| प्रीति की गागर लिखूं, या आत्मा का मंथन लिखूं।। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित, चाहे जितना लिखूं.... ज्ञानियों का गुंथन लिखूं, या गाय का ग्वाला लिखूं.. कंस के लिए विष लिखूं, या भक्तों का अमृत प्याला लिखूं। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं.... पृथ्वी का मानव लिखूं, या निर्लिप्त योगेश्वर लिखूं। चेतना चिंतक लिखूं, या संतृप्त देवेश्वर लिखूं ।। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं.... जेल में जन्मा लिखूं, या गोकुल का पलना लिखूं। देवकी की गोदी लिखूं, या यशोदा का ललना लिखूं ।। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं.... गोपियों का प्रिय लिखूं, या राधा का प्रियतम लिखूं। रुक्मणि का श्री लिखूं, या सत्यभामा का श्रीतम लिखूं।। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं.... देवकी का नंदन लिखूं, या यशोदा का लाल लिखूं। वासुदेव का तनय लिखूं, या नंद का गोपाल लिखूं।। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं.... नदियों-सा बहता लिखूं, या सागर-सा गहरा लिखूं। झरनों-सा झरता लिखूं, या प्रकृति का चेहरा लिखूं।। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं.... आत्मतत्व चिंतन लिखूं, या प्राणेश्वर परमात्मा लिखूं। ्थिर चित्त योगी लिखूं, या यताति सर्वात्मा लिखूं।। रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं..... कृष्ण तुम पर क्या लिखूं, कितना लिखूं... रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं....
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा। पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे कहो कहाँ कब हारा? |
Mercy, resolve, tact, tolerance you’ve tried everything and some. But o my king of men when did Suyodhan succumb? |
क्षमाशीलहो ॠपु-समक्ष तुम हुये विनीत जितना ही| दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही।। |
The more forgiving you were in your humane compassion. The more these rouge Kauravas pegged you as cowardly ashen. |
अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है| पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है।। |
This is the consequence of tolerating atrocities. The awe of machismo is lost when one is gentle and kindly. |
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है| उसका क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल है।। |
Forgiveness is becoming of the serpent that’s got venom. None cares for the toothless, poisonless, kind, gentle one. |
तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिंधु किनारे। बैठे पढते रहे छन्द अनुनय के प्यारे प्यारे।। |
For three days Lord Ram kept asking the ocean for a passage. Sitting there he petitioned using the sweetest words to engage. |
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नही सागर से| उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।। |
When in response there was not a whisper from the sea. A raging fire of endeavor rose from Ram’s body. |
सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में| चरण पूज दासता गृहण की बंधा मूढ़ बन्धन में।। |
The ocean took human-form and supplicated to Ram. Touched his feet, was subservient a slave he had become. |
सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की| संधिवचन सम्पूज्य उसीका जिसमे शक्ति विजय की।। |
Truth be told, it’s in the quiver that lies the gleam of modesty. Only his peace-talk is reputable who is capable of victory. |
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है| बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।। |
Tolerance, forgiveness and clemency are respected by the world. Only when the glow of strength from behind them is unfurled. |
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥ |
जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई। वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥ |
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं। उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥ |
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती। तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥ |
इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है। इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥ |
भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं। सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥ |
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया। पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥ |
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है। कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥ |
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे। गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥ |
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें। जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥ |
वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का। बना रहे हथियार मुझे क्यों अपनो से ही लड़ने का। जिनने अपनाया मुझको वे सबकुछ अपना भूल गए, मात्रु -भूमि पर जिए-मरे हंस-हंस फंसी पर झूल गए। वीर शिवा,राणा,हमीद लक्ष्मीबाई से अभिमानी, भगतसिंह,आजाद,राज,सुख औ बिस्मिल से बलिदानी। अवसर चूक न जाना उनके पद-चिन्हों पर चलने का, वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का। करनेवाले काम बहुत हैं व्यर्थ उलझनों को छोड़ो, मुल्ला-पंडित तोड़ रहे हैं तुम खुद अपनों को जोड़ो। भूख,बीमारी,बेकारी,दहशत गर्दी को मिटाना है, ग्लोबल-वार्मिंग चुनौती से अपना विश्व बचाना है। हम बदलें तो युग बदले बस मंत्र यही है सुधरने का, वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का। चंदा-तारे सुख देते पर पोषण कभी नहीं देते, केवल धरती माँ से ही ये वृक्ष जीवन रस लेते। जननी और जन्म-भूमि को ज़न्नत से बढ़कर मानें, पूर्वज सारे एक हमारे इसी तथ्य को पहचानें। जागो-जागो यही समय है अपनीं जड़ें पकडनें का| वन्देमातरम गीत नहीं मैं मंत्र हूँ जीने-मरने का।
Secularism in India
जो व्यक्ति हिन्दुओ की मान्यताओं और त्योहारों पर सवाल उठाए और बाकी मजहब जैसे इस्लाम और ईसाइयत की मान्यताओं और त्योहारों पर चुप रहे उसे ही सेक्युलर / धर्मनिरपेक्ष (Islamist apologist masquerading as a Hindu - एक हिंदू के रूप में इस्लामिवादियों की तरफ से माफी मांगने वाले) कहते है। उदाहरण के लिए:
क्या सोच के निकले थे, और कहाँ निकल गये हैं, ७२ साल में आज़ादी के, मायने ही बदल गये हैं। आज मारपीट, दहशत और बलात्कार आज़ादी है, पथराव, लूटपाट, आगजनी, भ्रष्टाचार आज़ादी है।। आज अलगाव, टकराव और भेदभाव आज़ादी है, संकीर्णता, असहिष्णुता, और बदलाव आज़ादी है। लालची, निठल्ले और उपद्रवीयों का बोलबाला है, सम्मान, संवेदना और सद्भाव का मुंह काला है।। सड़क पे निजी और धार्मिक कार्यक्रम आज़ादी है, आज भीड़ द्वारा संदिग्ध की मार पीट आज़ादी है। संवाद ना कर विवाद बनाना, आदत बन गये है, ध्रष्टता और मनमर्जी, आज आज़ादी बन गये हैं।। Reference: Yogesh Suhagwati Goyal
हारित ऋषि का फिर से कोई जाप पैदा हो, देश में राष्ट्रीयता की छाप पैदा हो। मनाती है मनौती आज भी माटी ये मेवाड़ की, हर युग में उसकी कोख से कोई प्रताप पैदा हो।
शहर बसाकर, अब सुकून के लिए गाँव ढूँढते हैं ! बड़े अजीब हैं लोग, हाथ मे कुल्हाड़ी लिए छाँव ढूँढते हैं ! पानी से पानी मिले, मिले कीच से कीच, ज्ञानी से ज्ञानी मिले, मिले नीच से नीच! भावार्थ: नीच के साथ बैठने से बुद्धिमान मनुष्य की बुद्धि का भी हरण हो जाता है लादेन की फ़ोटो सामने रखकर काम करने वाले की नौकरी करते हो और शांति पाठ समझा रहे हो, आतंकवादियों को एक्टिविस्ट कहते हो और फेक न्यूज समझा रहे हो, सेना की पोजिशन दुश्मन को बताने वालो के टुकड़े में पलते हो और दंगे पर लेक्चर दे रहे हो. रोते रहो, गड्डी यूं ही चालेगी!
सौवीं गाली सुन कान्हा का चक्र हाथ से छूट गया॥ गांधी जी की पाक परस्ती पर भारत लाचार हुआ। तब जाकर नाथू उनका वध करने को तैयार हुआ॥ गये प्रार्थना सभा में गांधी को करने अंतिम प्रणाम। ऐसी गोली मारी उनको याद आ गए श्री राम॥ मूक अहिंसा के कारण भारत का आँचल फट जाता। गांधी जीवित होते तो फिर देश दुबारा बंट जाता॥ थक गए हैं हम प्रखर सत्य की अर्थी को ढोते ढोते। कितना अच्छा होता जो नेता जी राष्ट्रपिता होते॥ नाथू को फाँसी लटकाकर गांधी जो को न्याय मिला।
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